Friday, September 9, 2011

और फिर यूँ हुआ

और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
फिर यूँ हुआ चाँद की वो डली घुल गयी
और यूँ हुआ, ख्वाब की वो लड़ी खुल गयी
चलती रही बेनूरियां, चलते रहे अंधेरों की रौशनी के तले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले

और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
फिर यूँ हुआ, चेहरे के नक्श सब धुल गए
और यूँ हुआ, गर्द थे गर्द में रुल गए
तन्हाईयाँ ओढ़े हुए, गलते रहे भीगे हुए आँसुओं से गले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
एक सदी के लिए हम दिलज

Thursday, July 21, 2011

सूरज फिर से जलने लगे !



गुलज़ार साहब, वर्तमान ब्रह्माण्ड के भविष्य पर -


थोड़े से करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद ना डूबेगा
और कोई ज़मीं ना उभरेगी
दबे बुझे एक कोयले सा
टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका
मद्धम खाकीस्तरी रोशनी में

मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर
कागज़ पे लिखी एक नज़्म कहीं
उड़ते उड़ते सूरज में गिरे
और सूरज फिर से जलने लगे !


Saturday, April 9, 2011

रात चाँद और मैं

उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात  चाँद  और  मैं  तीनो  ही  बंजारे  हैं
तेरी  नाम  पलकों  में  शाम  किया  करते  हैं  
कुछ  ऐसी  एहतियात  से  निकला  है  चाँद  फिर
जैसे  अँधेरी  रात  में  खिड़की  पे  आओ   तुम  


क्या  चाँद  और  ज़मीन   में  भी  कोई  खिंचाव  है  
रात  चाँद  और  मैं  मिलते  हैं  तो  अक्सर  हम
तेरे  लेहज़े  में  बात  किया  करते  हैं 
  
सितारे  चाँद  की  कश्ती  में  रात  लाती  है   
सहर   में  आने  से  पहले  बिक  भी  जाते  हैं


बहुत  ही  अच्छा  है  व्यापार  इन  दिनों  शब  का  
 बस  इक  पानी  की  आवाज़  लपलपाती   है
की  घात  छोड़  के  माझी   तमामा  जा   भी  चुके  हैं 


चलो  ना  चाँद  की  कश्ती  में  झील  पार  करें


रात  चाँद  और  मैं अक्सर  ठंडी  झीलों   को
 डूब  कर  ठंडे  पानी  में  पार  किया  करते  हैं

Friday, February 11, 2011



मकान की

 उपरी मंजिल पे अब कोई नहीं रहता,

वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी, अब ऊपर नहीं जाती

मकान की उपरी मंजिल पे अब कोई नहीं रहता

वहां कमरों में, इतना याद है मुझको,
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे.
बहुत से तो उठाने , फेंकने , रखने में चूरा हो गए .

वहां एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता , वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था

उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं ,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं,
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का,
फ्रेज़र से ख़रीदा था , मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं , सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं

उसी मंजिल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था , हवा फिर टेढा कर जाती

बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे[Cliche] लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा , पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे


मेरी मंजिल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है.

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती , वहां एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.


और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊं .

मकान की उपरी मंजिल पे कोई नहीं रहता..



. 

Monday, January 24, 2011

दोपहर होने को आई




आकाश इतना छोटा तो नही

और इतना थोड़ा भी नही .

सारी ज़मीन ढांप ली साहिब

मेरा इतना सा आँगन

क्यूँ नही ढांप ले सकता ..

दोपहर होने को आई

और इक आरज़ू

धूप से भरे आँगन में

छाँव के छीटे फेंकती है

और कहती है

ये आँगन मेरा नही ..

यहाँ तो बस

पाँव रखने को छाँव चाहिए मुझे ..

ये घर भी मेरा नही

मुझे उस घर जाना है

जिस घर मेरा आसमान रहता है .

.मेरा आकाश बसता है !